जब बात स्टाल्किंग की आती है, या कहें कोई किसी का पीछा करता है, तो एक अंतर्निहित सामाजिक भाव ये भी होता है कि “स्टाल्किंग रोमांटिक है’, ‘स्टाल्किंगगंभीर नहीं है’ और ‘पीड़ित खुद ज़िम्मेदार हैं’। सुनने में अजीब लगता है, लेकिन कुछ ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं को शोध यही कहता है।
स्टाल्किंग को लेकर समाज के नज़रिए को समझने के लिए स्विमबर्न यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी और मोनाश यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए संयुक्त शोध में तीनअंतर्निहित नज़रिए सामने आए जो स्टाल्किंग को किसी ना किसी हद तक जायज़ ठहराते हैं।
इस शोध में समाज से 244 लोगों और 280 पुलिस अफसरों ने पीछा करने पर आधारित स्टाल्किंग रिलेटिड एडिट्यू्ड क्वेश्नायर(SRAQ) टेस्ट लिया। ये टेस्टस्टाल्किंग से संबंधित नज़रिए को आंकने की कोशिश करता है और इसमें प्रतिभागियों से स्टाल्किंग को लेकर पूछे गए सवालों से सहमत या असहमत होने के लिएकहा जाता है।
स्विमबर्न के सेंटर फॉर फोरेंसिक एंड बिहेवियोरल साईंस के डॉ. ट्रॉय मैकईवान कहते हैं कि इस शोध का प्रमुख लक्ष्य ये जानना था कि समाज में स्टाल्किंग को लेकरक्या नज़रिए और मत हैं, और क्या ये नज़रिए लोगों के व्यवाहार को प्रभावित करते हैं?
मैकईवान कहते हैं, “स्टाल्किंग को लेकर नज़रिए और मत जानने से इन्हें स्टाल्किंग विरोधी जागरूकता अभियानों में और अपराधियों और पीड़ितों के उपचारकार्यक्रमों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है”।
शोधकर्ता ये भी जानना चाहते थे कि क्या स्टाल्किंग के नज़रिए को लेकर लैंगिक असमानताएं भी मौजूद हैं, क्या पुलिस अधिकारी इन मिथकों का समर्थन करते हैं, और क्या इस नज़रिए को स्वीकृति देने से एक काल्पनिक स्टाल्किंग मामले में दोष साबित करने में कोई असर पड़ता है।
नतीजों में पाया गया कि स्टाल्किंग से संबंधित मिथकों का मर्दों से ज्यादा औरतों ने समर्थन किया। हालांकि पुलिस और समाज के लोगों में ज्यादा फर्क नहीं था, लेकिन कुछ जवाब इस बात की ओर इशारा कर रहे थे कि पुलिस अधिकारी स्टाल्किंग को समाज की तुलना में ज्यादा गंभीरता से लेते हैं।