Hindi Blogs अमीरी की ग़ुलामी या ग़रीबी का नंगा सच! By Team Khurki - 0 FacebookWhatsAppEmailPrint ये अमीरी की ग़ुलामी है या ग़रीबी का नंगा सच?? ?शाम को थक कर टूटे झोंपड़े में सो जाता है वो मजदूर, जो शहर में ऊंची इमारतें बनाता है… ?मुसीबत में अगर मदद मांगो तो सोच कर मांगना, क्योंकि मुसीबत थोड़ी देर की होती है और एहसान ज़िन्दगी भर का… ?मशवरा तो खूब देते हो ‘खुश रहा करो’, कभी-कभी वजह भी दे दिया करो… ?अमीर की बेटी पार्लर में जितने पैसे खर्च आती है, उतने में गरीब की बेटी अपने ससुराल चली जाती है… ?कल एक इन्सान रोटी मांग कर ले गया और करोड़ों कि दुआयें दे गया, पता ही नहीँ चला कि गरीब वो था कि मैं… ?दीदार की तलब हो तो नज़रें जमाए रखना…क्योंकि ‘नकाब’ हो या ‘नसीब’, सरकता ज़रूर है… ? गठड़ी बाँध बैठा है अनाड़ी, साथ जो ले जाना था वो कमाया ही नहीं… ?मैं किस्मत का सबसे पसंदीदा खिलौना हूँ, वो रोज़ जोड़ती है मुझे फिर से तोड़ने के लिए… ?जिस घाव से खून नहीं निकलता, समझ लेना वो ज़ख्म किसी अपने ने ही दिया है… ?बचपन भी कमाल का था, खेलते-खेलते चाहे छत पर सोयें या ज़मीन पर, आँख बिस्तर पर ही खुलती थी… ?हर नई चीज़ अच्छी होती है लेकिन दोस्त पुराने ही अच्छे होते हैं… ?ए मुसीबत ज़रा सोच के आना मेरे करीब ,कहीं मेरी माँ की दुआ तेरे लिए मुसीबत ना बन जाये… ?खोए हुए हम खुद हैं, और ढूंढते भगवान को हैं… ?अहंकार दिखा के किसी रिश्ते को तोड़ने से अच्छा है कि माफ़ी मांगकर वो रिश्ता निभाया जाये… ?ज़िंदगी तेरी भी अजब परिभाषा है…सँवर गई तो जन्नत, नहीं तो सिर्फ तमाशा है… ?खुशीयाँ तकदीर में होनी चाहिये, तस्वीर में तो हर कोई मुस्कुराता है… ?एहसास इश्क़ ए हक़ीक़ी का सब से जुदा देखा, इन्सान ढ़ूँढें मँदिर मस्जिद मैंने हर रूह में ख़ुदा देखा.. ?ज़िंदगी भी विडियो गेम सी हो गयी है, एक लैवल क्रॉस करो तो अगला और मुश्किल आ जाता है… ?इतनी चाहत तो लाखों रुपये पाने की भी नहीं होती, जितनी बचपन की तस्वीर देख कर बचपन में जाने की होती है… ?हम तो पागल हैं शौक़-ए-शायरी के नाम पर ही दिल की बात कह जाते हैं, कई इन्सान गीता पर हाथ रख कर भी सच नहीं कह पाते… ?हमेशा छोटी-छोटी ग़लतियों से बचने की कोशिश किया करो, क्योंकि इन्सान पहाड़ों से नहीं पत्थरों से ठोकर खाता है… ?इन्सान कहते हैं कि मेरे दोस्त कम हैं, लेकिन वो नही जानते कि मेरे दोस्तों मे कितना दम है…